जिसका सब कुछ मधुर,मधुरतम है, आज ऐसे नंद नंदन के जन्मदिन को हम मना रहे हैं। जब जब हम अपने किसी ईष्ट को याद करते हैं तो वह स्मृति में आता है उसका हम मनन चिंतन करते हैं, परंतु श्रीकृष्ण अलग है ये जब चेतना में आतें है तो वह मनन नही चिन्तन नही बल्कि रमण करतें है,यहाँ रमण को समझना अति आवश्यक है, रमण का मतलब जीवन के छण -छण और इस सृष्टि के कण -कण में वह व्याप्त हुआ दीखता है। जरा समझिये वे गाय चराते हैं, रास रचाते है,माखन चुराते हैं, युद्ध भी करते है,युद्ध छोड़कर भाग भी जाते हैं,वह मुरलीधर, जो मुरली बजाकर मोहित भी करता है,गिरिधर है जो साबित करताहै की धरा का संपूर्ण भार मैं ही वहन करता हूँ, वह चक्रधर है,चक्र से काटता भी है और घुमाता भी है,अर्थात किसी न किसी रूप में सबको अपनी माया से भ्रमित करता है।यहाँ कृष्ण के नाम के अर्थ को भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है,कृष्ण कृष, धातु से बना है,जिसका अर्थ अपनी ऒर खीचना होता है,इसीलिए उसे मोहन कहते हैं, हाँ ध्यान रखिये वह मोहन, मोहक तो है लेकिन स्वयं मोहित नहीं होता है,सृष्टि को स्पंदित करने वाली बांसुरी बजाता है,इसकी बांसुरी जड़ को चेतन बनाती है,गोपियाँ बाँसुरी तो चुराती है लेकिन बांसुरी को अधर से नही लगाती है,क्योंकि वे कहती है,
“या मुरली मुरलीधर की अधरानधरी अधरा न धरौगीं।। ”
लेकिन देती नही है बासुरी,
“बतरस लालच लाल की मुरलीधरि लुकाय”।।
संघर्ष का तो वह वाहक है जन्म कितनी विपरीत परिस्थितियों में, पालन पोषण हेतु दूसरी जगह, कार्य गो पालन ,तब भी वह विराट खड़ा है,कभी सारथी बनकर कभी गोदनहारी,मनिहारी बनकर कभी चक्र उठाकर बध भी करता है,रूप मोहिनी का जादू तो ऐसा डालता है कि फिर कोई उबर न पावे,
“अपने ही रंग रंग लीन्हों रे मुझसे नैना मिलाइके,
(आप ध्यान दीजिए वह कहीं भी किसी चित्र में सीधा खड़ा ही नही होता जहाँ देखिये वह तिरछे ही खड़ा है ,तिरछी ही उसकी चितवन है तिरछे ही उसके नैन हैं) वह सोलह कलाओं से युक्त माना जाता है, वह सोलह कलाएं भी जान लीजिये, प्रथम है धनसम्पत्ति, उसका वह अगाध भंडार है,दूसरी भू अचल, अर्थात वह भुवनेश्वर तो है ही, तीसरी है कीर्ति,चहुदिस उसी की कीर्ति का गान होता है ,चौथी है इला ,अर्थात सम्मोहकता, इसीलिए वह मोहन कहलाता है,पांचवी है लीला आनंद,उसका काम ही लीला करना वह लीलाधर है,छठी है कांति,सौदर्य आभा क्या कहने,सातवी है विद्या मेधा सम्पूर्ण चराचर उसका कायल है,आठवी है विमल,अर्थात पारदर्शिता, नवीं है उत्कर्षनी, अर्थात प्रेरणा और नियोजन,महाभारत जैसे युद्ध का प्रेरणाधार रहा, दसवीं है नीर छीर विवेक,ग्यारहवीं है कर्मणता, गीता का उपदेश और अर्जुन को प्रेरणा का आधार,बारहवीं है योगचित्तलय अर्थात मन को आत्मा में लीन करना,इसलिए वह योगेश्वर कहलाता है तेरहवीं है प्रहवि, अर्थात विनय ,माँ के सामने माखन चुराते समय वह यह कला दिखाता है,चौदहवीं है सत्य पर्याय, वह सदा सत्य ही है ,एकबार शिशुपाल की माता जब उससे पूछती है कि लिखा है कि कृष्ण तुम मेरे पुत्र शिसुपाल का बध करोगे वह उससे कहता है कि, यही विधि का विधान है मुझे करना ही पड़ेगा,पन्द्रहवीं है ईषना, अर्थात अधिपत्य, लोगों पर अपना प्रभाव डाल देता है चाहे वह जड़ हो या चेतन और सोलहवीं है,अनुग्रह अर्थात बिना प्रत्युपकार का भाव रखे सबका उपकार करना उसकी ये समस्त कलाएं शिव तत्व का बोध कराती हैं, जिसमे सत्यं शिवम सुन्दरम समाहित है। इस कलिकाल में जहाँ कब कुठार चल जाय, श्री कृष्ण ही एक सहारा है,क्योकि कालीनाग रूपी बुराइयों से कैसे बचा जाये, सम्प्रति समाज में कुकृत्यकारी चारों तरफ अपनी विषबेल फैलाये है,उसी में जीवन जीना है,इनसे तो अब श्रीकृष्ण ही बचा सकते हैं।
श्रीकृष्ण शरणम,,
प्रोफेआर एन त्रिपाठी समाजशास्त्र विभाग काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी