खुदी में ख़ुद को देखती हूं मैं।
फिर भी ख़ुद में ख़ुद को देख नही पाती।
ये मज़ाक नहीं तो क्या है?
सपने में भी सपनों की दुनिया में रहती हूं मैं।
उन सारे सपनों के सच होने के सपनो में जीती हूं मैं।
अगर ये सपनों का ज़हर नही तो क्या है?
ख़ुद से ही ख़ुद को बनाकर।
खुदी से ही ख़ुद को मिटाकर,
ख़ुद में ही मिल जाती हूं मैं।
जागना तो चाहती हूं मैं,
मगर डर है कि अपना सब कुछ खो दूंगी मैं ।
अब करूं तो क्या करूं,
इसमें भी कोई शक नही की,
ख़ुद को खोकर ख़ुद को पा लूंगी मैं।
शिखा चतुर्वेदी
वाराणसी