जौनपुर देश के 11 वें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की जन्म जयंती है। उनके सम्मान में वर्तमान सरकार द्वारा 2014 से इस दिन को सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाता है।सुशासन का तात्पर्य शासन की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता,नागरिकों के प्रति जवाबदेही,क़ानून का शासन, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था से है।एक कुशल राजनीतिज्ञ और कवि अटल जी के जन्मजयंती को सुशासन दिवस के रूप में मनाकर देश निश्चित ही उन महापुरुष के प्रति भावंजलि व्यक्त करता है ।ऐसे में 12.08.1995 को शिक्षक संघ लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में अटल जी का उद्बोधन बरबस विचार में आता है।कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में वह कहते हैं यदि बंटवारा न हुआ होता तो मैं भी अध्यापक होता।शिक्षकों का मान- सम्मान करने में मुझे गर्व की अनुभूति होती है।अध्यापकों को शासन द्वारा प्रोत्साहन मिलना चाहिए। प्राचीन काल में शिक्षकों का अधिक सम्मान था,आज तो शिक्षक पिस रहा है।राष्ट्र के निर्माण में शिक्षा,शिक्षक पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। इन वाक्यों पर विचारोपरान्त आश्चर्य होता है कि जो व्यक्ति अध्यापकों को शासन द्वारा प्रोत्साहन के पक्ष में था वही सत्तासीन होने पर पुरानी पेंशन को समाप्त कर देता है। जिससे राष्ट्र निर्माण में योगदान करने वाला सरकारी कर्मचारी एक लंबी सेवा काल के बाद आज जब बुढ़ापे में किसी अन्य सहारे पर गुजर-बसर करना प्रारंभ करता है तो एक टीस अवश्य होती है कि जिस समय देश में राजनीतिक अस्थिरता थी उस समय 1998 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व करने वाले वाजपेयी जी ने सरकारी कर्मचारियों के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया?जिसकी भरपाई नई पेंशन स्कीम भी नहीं कर पाती है जिसमें आवश्यकता से अत्यधिक कम की राशि पेंशन रूप में प्राप्त हो रही है।
अटल जी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में सामरिक और विज्ञान के क्षेत्र में अमेरिका के दबाव के बावजूद पोखरण परमाणु परीक्षण कर,समावेशी शिक्षा के लिए सर्व शिक्षा अभियान,अधोसंरचना के क्षेत्र में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, आर्थिक क्षेत्र में शानदार राजकोषीय प्रबंधन जिससे महंगाई दर 4 प्रतिशत से भी कम,सकल घरेलू उत्पाद 8 प्रतिशत से ज्यादा,भरपूर विदेशी मुद्रा भंडार के द्वारा देश को मजबूती प्रदान किया किन्तु ऐसा लगता है कि इन सबकी क्षतिपूर्ति के लिए सरकार ने पुरानी पेंशन समाप्त कर दिया।
यूं तो पुरानी पेंशन के विरोधी तमाम आंकड़ों के माध्यम से इसे देश-हित में निरर्थक सिद्ध करते हैं,लेकिन इस प्रयास के पीछे देश हित कम वोट बैंक ज्यादा मायने रखता है।आज पुरानी पेंशन के हकदार आबादी के 11-12 प्रतिशत रहे होते तो रिजर्व बैंक आफ इंडिया से लेकर तमाम अर्थशास्त्रियों के आंकड़े पुरानी पेंशन को लेकर इतने नकारात्मक न रहे होते। अब तो स्थिति ये है कि पुरानी पेंशन की मांग करने वाले देश के विकास में बाधक माने जाने लगे हैं।
एक सहृदय कवि जो माँ भारती के सम्मान में जब सार्थक शब्दों का जाल बुनता है कि भारत जमीन का टुकड़ा नहीं जीता जागता राष्ट्र पुरुष है,हिमालय इसका मस्तक गौरी शंकर शिखा और यहाँ के कंकर कंकर में शंकर का वास है, तब हम भारतीय भी रोमांचित मन से इस पुण्य भूमि पर गर्व करते हैं। ऐसे सर्वश्रेष्ठ कवि,प्रखर वक्ता, प्रधानमंत्री द्वारा पुरानी पेंशन को छीनना सरकारी कर्मचारियों पर कुठाराघात करना सिद्ध हुआ।
ऐसा भी नहीं की पुरानी पेंशन न देने से भारत की अर्थव्यवस्था बहुत शानदार हो चली है। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) ने कर्ज के बढ़ते दबाव को लेकर भारत को आगाह किया है कि मीडियम टर्म में भारत का सरकारी कर्ज बढ़कर ऐसे स्तर पर पहुंच सकता है जो देश की जीडीपी से ज्यादा हो सकती है अर्थात् कुल सरकारी कर्ज देश की जीडीपी से 100 फीसदी से भी ज्यादा हो सकती है।यदि आंकड़ों पर गौर करें तो भारत का डेट-टू-जीडीपी रेशियो दो दशक से 80 फ़ीसदी के आसपास है। वित्त वर्ष 2005-06 में जहां यह 80 फीसदी थी,वहीं 2021-22 में 84 फ़ीसदी पर जा चुका है।ऐसे में पुरानी पेंशन को समाप्त कर देने से अर्थव्यवस्था कोई सुधार तो नहीं दिखती।निहितार्थ ये है कि पुरानी पेंशन को खत्म कर सरकार ने सरकारी कर्मचारियों पर अन्याय किया है, जो कि वाजपेयी सरकार के ही हिस्से में आता है।ऐसे में शासन द्वारा कर्मचारी हित में पुरानी पेंशन बहाल किया जाना चाहिए।