मण्डल हेड गिरजा शंकर निषाद
हिन्दू धर्म के प्रचारक मार्कडेय सिंह मुन्ना साथ में वरिष्ठ शिक्षक अशोक शुक्ल जी के मुलाकात करने पर अपने अपने विचार व्यक्त किये ।
सेवा का भाव प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। सनातन धर्म में तो सेवा को धर्म का सार बताया गया है। प्राणी मात्र और प्रकृति की सेवा का भाव सनातन धर्मसेवा भाव ही सनातन धर्म का सार है
सेवा का भाव प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। सनातन धर्म में तो सेवा को धर्म का सार बताया गया है। प्राणी मात्र और प्रकृति की सेवा का भाव सनातन धर्म की पूजा पद्धति और मान्यताओं में समाहित है। की पूजा पद्धति और मान्यताओं में समाहित है। सेवा के भी कई श्रेष्ठ रूप वर्णित हैं। इनमें मानव की सेवा माधव (भगवान) की सेवा के समतुल्य मानी गई है। कहा जाता है मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य होते हैं जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले अधर। नि:संदेह सेवा मानव की ऐसी भावना है, जो उसे पूर्णता प्रदान करती है। सेवाभाव ही मानव जीवन का वास्तविक सौंदर्य और श्रृंगार है ।
मानव समाज के भीतर सेवा भाव का होना परम आवश्यक है। सेवाभाव से जहां समाज में व्याप्त विषमता और कुरीतियां समाप्त होती हैं, वहीं परस्पर प्रेम और सौहार्द बढ़ने से समाज का समग्र उत्थान होता है। सेवाभाव किसी भी व्यक्ति के लिए आत्मसंतुष्टि का कारण ही नहीं बनता, वरन वह दूसरों के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित भी होता है। जो सच्चे मन से सेवा करता है, वह दूसरों के सच्चे स्नेह और आशीर्वाद का पात्र बनता है।
सेवा का महत्व सौंदर्य से अधिक है। सौंदर्य सिर्फ भौतिक रूप से मुग्ध कर सकता है, परंतु आत्मा को वास्तविक आनंद की प्राप्ति तो सेवा से ही संभव हो सकती है। इसी संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत ही सुंदर पंक्ति लिखी है ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’ अर्थात दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं हैं। धार्मिक ग्रंथों में भी सच्ची सेवा उसे माना गया है जिसके पीछे परहित की भावना हो। हमें सेवा की भावना को जीवन में आवश्यक व्रत के रूप में ग्रहण करना चाहिए। बच्चों में सेवाभाव विकसित करने के लिए परिवार और विद्यालय सबसे आदर्श संस्था हैं। अभिभावकों और शिक्षकों का दायित्व है कि वे स्वयं बच्चों के समक्ष अपने आचरण से ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें, जिसे देखकर बच्चों में सेवा भाव का संस्कार उत्पन्न हो।